A TRIBUTE TO HOCKEY WIZARD MAJOR DHYAN CHAND| हॉकी के जादूगर मेजर ध्यानचंद को श्रद्धांजलि

A TRIBUTE TO HOCKEY WIZARD MAJOR DHYAN CHAND
हॉकी के महानायक मेजर ध्यानचंद की जयंती के मौके पर 130 करोड़ से अधिक भारतीय राष्ट्रीय खेल दिवस मना रहे हैं। इस महान हॉकी खिलाड़ी ने 1928-1932 और 1935 के ओलंपिक के दौरान भारत के लिए स्वर्ण पदक जीते। उन्होंने अपने 20 साल के करियर में 400 से अधिक गोल किए। आइए जानते हैं हॉकी के जादूगर की जिंदगी से जुड़े जाने-अनजाने तथ्य।
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बचपन में उन्हें ध्यान सिंह नाम से जाना जाता था और 16 साल की उम्र में वे एक सिपाही के रूप में भारतीय सेना में शामिल हो गए और हॉकी खेलना शुरू कर दिया। जब उन्होंने चांद की रोशनी में हॉकी की प्रेक्टिस शुरू की, तब उनके दोस्तों ने उन्हें 'चंद' कहना शुरु कर दिया।

यह 1922 और 1926 के बीच का दौर था जब ध्यानचंद ने भारतीय सेना के हॉकी टर्बन और रेजिमेंटल मैच खेले। मैदान पर अपने कौशल और गेंद को गोल तक पहुंचाने की अपनी स्वाभाविक क्षमता के कारण, ध्यानचंद को न्यूजीलैंड दौरे के लिए भारतीय सेना की टीम में चुना गया। टीम ने 18 मैच जीते, दो ड्रॉ रहे और सिर्फ एक मैच में हार का सामना करना पड़ा। भारत लौटने पर ध्यानचंद को लांस नायक के पद पर पदोन्नत किया गया।

1928 में एम्स्टर्डम ओलंपिक के लिए भारतीय हॉकी टीम में ध्यानचंद को सेंटर फॉरवर्ड के रूप में चुना गया। ओलंपिक से पहले सभी स्थानीय टीमों के खिलाफ भारतीय टीम ने बड़े अंतर से जीत हासिल की। मुख्य टूर्नामेंट में टीम ने देश का पहला ओलंपिक स्वर्ण जीता, जबकि ध्यानचंद केवल 5 मैचों में 14 गोल के साथ टूर्नामेंट के शीर्ष स्कोरर रहे।


लॉस एंजिल्स ओलंपिक 1932 के ट्रायल के लिए अपनी पलटन द्वारा छुट्टी न मिलने पर ध्यानचंद को बिना किसी ट्रायल या फॉर्मेलिटी के ओलंपिक टीम के लिए चुन लिया गया था। संयुक्त राज्य अमेरिका के खिलाफ भारत ने 24-1 से जीत दर्ज की जो 2003 से पहले तक एक विश्व रिकॉर्ड था। मैच में ध्यानचंद ने 8 गोल किए, जबकि उनके भाई रूप सिंह ने 10 गोल किए। पूरे टूर्नामेंट में भारत की ओर से किये गए 35 गोल में से 25 ध्यानचंद और उनके भाई रूप सिंह ने किये। टीम ने लगातार दूसरी बार ओलंपिक गोल्ड जीता

उम्र बढ़ने पर 1948 में ध्यानचंद ने धीरे-धीरे सीरियस हॉकी से दूर जाने का फैसला किया। ध्यानचंद का अपने करियर का अंतिम मैच बंगाल के खिलाफ रेस्ट ऑफ इंडिया टीम के लिए था। मैच एक गोल के साथ समाप्त हुआ। वह 1956 में मेजर के पद से भारतीय सेना से सेवानिवृत्त हुए।

ध्यानचंद की आत्मकथा का नाम गोल' है, जो 1952 में प्रकाशित हुई थी।
भारत सरकार ने इसी साल उन्हें भारत के तीसरे सर्वोच्च नागरिक सम्मान पद्म भूषण से सम्मानित किया। सेवानिवृत्त होने के बाद ध्यानचंद ने राजस्थान को कोचिंग दी और कई साल तक पटियाला में राष्ट्रीय खेल संस्थान में मुख्य हॉकी कोच के पद पर रहे।


ध्यानचंद ने अपना अंतिम वक्त अपने गृहनगर झांसी में बिताया। पैसे के अभाव में अंतिम दिनों के दौरान कई लोगों ने उन्हें नजरअंदाज किया। अहमदाबाद में एक टूर्नामेंट के दौरान उन्हें अधिकारियों द्वारा लोटा दिया गया क्योंकि वे ध्यानचंद को नहीं जानते थे।

ध्यानचंद को लिवर कैंसर डायग्नोज होने पर उन्हें दिल्ली में एम्स के एक सामान्य वार्ड में भर्ती कराया गया था। एम्स में 3 दिसंबर, 1979 को देश के इस महान दूत की मृत्यु हो गई और उनके परिवार गृहनगर झांसी के हीरो ग्राउंड में उनका अंतिम संस्कार किया। पंजाब रेजिमेंट ने उन्हें पूर्ण सैन्य सम्मान से सम्मानित किया।

भारत सरकार ने 2002 में दिल्ली के राष्ट्रीय स्टेडियम का नाम ध्यानचंद नेशनल स्टेडियम कर दिया। अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के प्रबंधन ने उनके नाम पर एक छात्रावास का नाम रखा। इसके अलावा ब्रिटिश सरकार ने भी ध्यानचंद के नाम पर लंदन में एक एस्ट्रोटर्फ हॉकी पिच का नाम रखा है।

उनकी जयंती को भारत में राष्ट्रीय खेल दिवस के रूप में मनाया जाता है, जो भारत के राष्ट्रपति भारतीय एथलीटों की उपलब्धियों का जश्न मनाने के लिए राष्ट्रीय खेल पुरस्कार, राष्ट्रीय साहसिक पुरस्कार, अर्जुन और खेल रत्न प्रदान करते हैं। इसके अलावा, 'ध्यानचंद पुरस्कार' भारत में खेल में लाइफटाइम अचीवमेंट के लिए सर्वोच्च पुरस्कार है।

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